पहला प्रधानमंत्री जो अंतर्राष्ट्रीय दबाव नहीं झेल पाता है

 

मोदी सरकार द्वारा पिछले 10-11वर्षों में लिए गए विभिन्न निर्णयों का सटीक विश्लेषण यह दर्शाता है कि विदेश मामलों में बहुत से मौकों पर प्रधानमंत्री मोदी भारत की बहुमूल्य नैतिक विरासत और राष्ट्रीय हितों के आधार पर स्पष्ट और ठोस रुख अपनाने में विफल रहे हैं। कई अवसरों पर उन्हें अंतर्राष्ट्रीय नेताओं और घटनाओं के दबाव में झुकते हुए देखा गया है। स्वतंत्रता के बाद 2014 तक भारत की विदेश नीति देश के बाहर विभिन्न राष्ट्रों के साथ रिश्तों में संतुलन बनाए रखने और देश के भीतर सामूहिक सहमति के सिद्धांत पर आधारित थी। उससे हटकर आज की प्रतिक्रियावादी, अवसरवादी और पीछे ले जाने वाली मोदी नीति ने भारत को वैश्विक स्तर पर एक असहज और कमज़ोर स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है।

‘ऑपरेशन सिंदूर’ के दौरान और उसके बाद भी मोदी सरकार के व्यवहार ने इस धारणा को और बल दिया है कि प्रधानमंत्री मोदी दबाव में टूट सकते हैं।

भारतीय नौसेना के वरिष्ठ अधिकारी कैप्टन शिव कुमार, जो वर्तमान में इंडोनेशिया में भारतीय दूतावास में मिलिट्री अटैशे के रूप में कार्यरत हैं, ने स्वीकार किया कि मई 2025 में पाकिस्तान के साथ संघर्ष के दौरान भारत ने अपने लड़ाकू विमान खो दिए क्योंकि सरकार ने आपरेशन सिन्दूर के दौरान भारतीय सेनाओं पर परिचालन सम्बन्धी कुछ प्रतिबंध लगा दिए थे।

इससे पहले भारत के चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल अनिल चौहान ने भी यह स्वीकार किया था कि कुछ रणनीतिक गलतियों के कारण भारतीय विमान पाकिस्तान द्वारा गिरा दिए गए। यह गलतियां संभवतः वही प्रतिबंध थे, जिनका जिक्र अब कैप्टन शिव कुमार ने किया है।

जब हमारी बहादुर सेनाओं ने सरकार द्वारा लगाई गई इन बाधाओं को पार कर पाकिस्तान को कड़ा जवाब देना शुरू किया, तभी अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 10 मई 2025 को दोपहर 3:33 बजे अचानक सोशल मीडिया पर ट्वीट कर युद्धविराम की घोषणा कर दी। दबाव में मोदी सरकार को ट्रंप की इस एकतरफा घोषणा के एक घंटे के भीतर युद्धविराम को मानने पर मजबूर होना पड़ा।

उस समय घटनाक्रम इतनी तेजी से बदला कि पहले तो देश की जनता कुछ समझ ही नहीं सकी कि हो क्या रहा है। कुछ ही घंटे पहले तक भाजपा और गोदी मीडिया पूरे ज़ोर से भारतीय सेनाओं की बहादुरी का राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश कर रहे थे। बीजेपी के कई नेता लाहौर, कराची और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर पर कब्ज़ा कर लिए जाने की बातें कर रहे थे। खुद प्रधानमंत्री मोदी भी सेना की वर्दी में अपने कट-आउट्स पूरे देश में लगवाकर बड़ी बड़ी बातें कर रहे थे। लेकिन जैसे ही ट्रंप का ट्वीट आया, मोदी सरकार ने चुपचाप, बिना कोई हील हुज्जत किए युद्धविराम के अमरीकी निर्देश को मान लिया। सीज़ फ़ायर स्वीकार करते हुए प्रधानमंत्री ने न तो देश की सुरक्षा बलों की कुर्बानियों के बारे में सोचा, न ही देश को हुए नुकसान के बारे में। उन्होंने तो यह तक नहीं सोचा कि कि पहलगाम के हत्यारे खुलेआम घूम रहे थे, जब कि पूरा देश उनके लिए कठोर सज़ा की मांग करते हुए उनके पीछे खड़ा था।

यह पहली बार नहीं था जब प्रधानमंत्री को अंतर्राष्ट्रीय दबाव में भारत के हितों से समझौता करना पड़ा। ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं।

दिसंबर 2015 के अंतिम दिनों में, प्रधानमंत्री मोदी भारत के शत्रु देश पाकिस्तान में वहां के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ की पोती की शादी में शामिल होने के लिए बिना निमंत्रण के ही चले गए। हमारे भारतीय संस्कारों में तो बिना बुलाए शादी में जाना अपमानजनक माना जाता है। लेकिन यहां तो देश के 130 करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रधानमंत्री इस तरह से बिना बुलावे के एक पराए देश में पहुंच गए थे, जो कि एक गंभीर कूटनीतिक भूल थी। इसका नतीजा यह हुआ कि अभी शादी के जश्न खत्म ही हुए थे कि 2 जनवरी 2016 को पाकिस्तानी आतंकवादियों ने पंजाब के पठानकोट एयरबेस पर हमला कर दिया, जिसमें सात भारतीय जवान शहीद हुए और 37 घायल हुए।

बात यहां पर ही खत्म नहीं होती है। प्रधानमंत्री मोदी ने दबाव में आते हुए पाकिस्तान की कुख्यात खुफिया एजेंसी आईएसआई द्वारा कराए गए इस हमले की जांच करने के लिए आईएसआई को ही हमारे सामरिक रूप से संवेदनशील पठानकोट एयरबेस आने का न्योता दे डाला।

प्रधानमंत्री मोदी द्वारा आईएसआई को आतंकी हमले की जांच में शामिल कर उसे पठानकोट बुलाने को एक बहुत बड़ी चूक मानते हुए पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा था कि उनके कार्यकाल में भारतीय सेनाओं को आतंकियों से निपटने के लिए पूरी स्वतंत्रता दी जाती थी और उस समय कई सर्जिकल स्ट्राइकस भी की गईं, लेकिन राजनीतिक लाभ लेने के लिए उनका कोई प्रचार प्रसार नहीं किया गया।

इसके विपरीत मोदी सरकार का अंतर्राष्ट्रीय दबाव के आगे झुकने का सिलसिला बदस्तूर चलता रहा। 2019 में अमेरिका के दबाव में आकर भारत ने ईरान से तेल आयात बंद कर दिया, जिससे भारत को भारी रणनीतिक और आर्थिक नुकसान हुआ। जबकि 2012 से अमेरिका के लगातार दबाव के बावजूद डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार ने देशहित में ईरान से आयात जारी रखा था और उसके भुगतान की व्यवस्था अंमरीकी डालर की बजाए भारतीय मुद्रा में करके भारत को अरबों डॉलर की विदेशी मुद्रा का लाभ भी पहुंचाया था। इसके अलावा मनमोहन सिंह की सरकार ने चीन और पाकिस्तान के भारी विरोध के बावजूद ईरान की चाबहार बंदरगाह का विकास करने का समझौता ईरान सरकार से करके इस बंदरगाह से भविष्य में भारतीय सामान का मध्य एशिया और यूरोप तक सीधा निर्यात करने का मार्ग भी प्रशस्त किया। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने तो विदेशी दबाव में आकर भारत की ईरान नीति को ही पलट के रख दिया।

बात यहीं पर नहीं रुकी। मोदी सरकार ने फ़िर से अहम राष्ट्रीय हितों की अनदेखी करते हुए अभी हाल में ही हुए ईरान – इज़राइल युद्ध में इज़रायल का समर्थन कर दिया। इससे ईरान पाकिस्तान और चीन के करीब चला गया और भारत के लिए लाभदायक चाबहार परियोजना अधर में लटक गई।

भारतवासी आज भी दिसंबर 1999 के उस भयावह घटनाक्रम को नहीं भूले हैं जब वाजपेयी सरकार ने उमर सईद और मसूद अजहर सहित तीन खूंखार आतंकियो को न केवल रिहा किया, बल्कि उन्हें चार्टर्ड विमान से एक केंद्रीय मंत्री की मौजूदगी में सुरक्षित अफगानिस्तान तक पहुंचाया गया।

ऐसी ही कायरता मोदी सरकार ने अप्रैल 2020 में दिखाई, जब लद्दाख में चीनी सेना ने 20 भारतीय सैनिकों की निर्मम हत्या कर दी। हालांकि चीन को भी नुकसान हुआ, परन्तु उन्होंने भारत की सैंकड़ों किलोमीटर भूमि पर कब्ज़ा कर लिया जो आज तक उनके नियंत्रण में है। प्रधानमंत्री मोदी को तभी भारतीय भूमि पर चीनी कब्जे का कड़ा विरोध करना चाहिए था और वापस लेने के कदम उठाने चाहिए थे, जैसा कि इन्दिरा सरकार ने 1969 में किया था। लेकिन प्रधानमंत्री ने तब न केवल चुप्पी साध ली बल्कि सार्वजनिक रूप से यह भी कह दिया कि भारत की सीमा में कोई नहीं घुसा है। इसलिए पूर्वी लद्दाख की कुछ भूमि अब भी चीन के कब्जे में बनी हुई है। इतना कुछ होने के बाद जब चीन ने दबाव डाला तो प्रधानमंत्री मोदी ने बड़े ज़ोर शोर से उससे व्यापारिक रिश्ते खोल दिए। आज हर साल भारत चीन से 113.5 अरब डॉलर से अधिक का माल मंगा रहा है, जबकि 2019-20 में गलवान हमले से पहले यह आंकड़ा केवल 65 अरब डॉलर था। भारतीय आयात लगातार बढ़ने से चीन को कोविड काल में आए आर्थिक संकट से उबरने में मदद भी मिली। परन्तु चीन से सस्ता और घटिया सामान आने से भारत के छोटे और मंझले उद्योग काफ़ी हद तक बर्बाद हो गए। भारत के छोटे उद्योगों का नुकसान कर चीन को लाभ क्यों पहुंचाया गया, इसका जवाब केवल प्रधानमंत्री ही दे सकते है।

इन सब के बाद भी राष्ट्रीय हितों से समझौतों की कहानी अनवरत जारी है। हाल ही में जब दुनिया के 149 देशों ने गाज़ा में महिलाओं और बच्चों के जनसंहार रोकने के लिए वोट किया, तो भारत ने प्रस्ताव के पक्ष में वोट न करने का फ़ैसला किया। इस एक दुर्भाग्यपूर्ण फैसले से प्रधानमंत्री ने न्याय, शांति और नैतिकता पर आधारित दशकों से चल रही भारतीय विदेश नीति को ही पलट के रख दिया। भारत के दीर्घकालीन हितों के विरूद्ध यह निर्णय भी प्रधानमंत्री ने इज़रायल, अमेरिका और उनके सहयोगियों के दबाव में लिया गया है।

आज भारत वैश्विक मंच पर अकेला और उपेक्षित सा खड़ा है। वो दिन जब 145 देशों ने अपना पूर्ण समर्थन दे कर भारत को सम्मान सहित वैश्विक परमाणु क्लब में शामिल किया था और जब लगभग हर देश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का लगातार समर्थन करता था, अब सिर्फ याद बनकर रह गए हैं।

महात्मा गांधी और पंडित नेहरू के इस देश, जहां 140 करोड़ मेहनती और जीवंत नागरिक बसते हैं, को आज भी विश्व में बड़े आदर और सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। लेकिन यहां पिछले एक दशक से अधिक समय से एक ऐसी सरकार चल रही है जो बार-बार अंतरराष्ट्रीय दबाव के चलते अवसरवादी फ़ैसले लेती है। इससे न सिर्फ देश की नैतिक प्रतिष्ठा और गरिमा को आघात पहुंचाता है, बल्कि राष्ट्रीय हितों पर भी आंच पहुंचती है।

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